कविता संग्रह >> गीत जो गाये नहीं गीत जो गाये नहींगोपालदास नीरज
|
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गीत-सम्राट नीरज के उच्चकोटि के गीतों का एक अविस्मरिणीय संग्रह
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रस्तुत कृति ‘गीत जो गाये नहीं’ कवि नीरज के उन
श्रेष्ठ और हृदयस्पर्शी गीतों का संकलन है, जो उनके द्वारा काव्यमंचो पर
प्रायः प्रस्तुत नहीं किये गये। और जिन्हें पढ़कर प्रत्येक पाठक को ऐसा
लगेगा जैसे कि ये गीत उसी के स्वयं के द्वारा हृदय की अनुभूतियाँ हैं।
गीत-सम्राट नीरज के उच्चकोटि के गीतों का एक अविस्मरिणीय और संग्रहणीय प्रस्तुति, जो हृदयस्पर्शी है।
गीत-सम्राट नीरज के उच्चकोटि के गीतों का एक अविस्मरिणीय और संग्रहणीय प्रस्तुति, जो हृदयस्पर्शी है।
जीवन की उत्सवधर्मिता का काव्य
आधुनिक हिन्दी गीति-काव्य के आकाश पर नक्षत्र की तरह चमकते हुए कवि नीरज
का परिचय स्वयं उनकी काव्य-रचनाएँ हैं। डॉ. हरिवंश राय बच्चन ने काव्य
मंचों की जिस परम्परा का सूत्रपात किया था, उसे कवि नीरज ने न सिर्फ
समृद्ध किया बल्कि जनसाधारण में भी लोकप्रिय बनाया। हिन्दी जगत् में आज वे
‘लिविंग लीजेण्ड’ बन चुके हैं। आम बोलचाल की भाषा में
जनसामान्य के दुख-दर्द की काव्यमयी अभिव्यक्ति और उसे काव्य-मंचों पर
प्रस्तुत करने की विशिष्ट शैली ने नीरज को मंच का ऐसा प्यारा और दुलारा
कवि बना दिया है कि पिछले छह दशकों से उनका काव्य-मंचों पर आधिपत्य है।
बाबा, पिता, स्वयं और पुत्र या दादी, माँ स्वयं और पुत्री यानी श्रोताओं
की चार-चार पीढ़ियों में समान रूप से इतना सम्मानित और चर्चित कोई अन्य
काव्य व्यक्तित्व आज हमें दिखाई नहीं देता। अभी पिछले दिनों चार जनवरी को
उन्होंने अपने जीवन के अस्सी वसंत पूरे किये हैं लेकिन आज भी उनमें युवाओं
जैसी स्फूर्ति और ताज़गी है। मंच पर उनकी आवाज़ का जादू आज भी श्रोताओं को
मंत्रमुग्ध कर देता है। और सबसे बड़ी बात तो यह है कि वे आज भी काव्य रचना
में सक्रिय हैं। यह उनकी कोई गर्वोक्ति नहीं है कि ‘तुमको लग
जाएँगी सदियाँ हमें भुलाने में’।
कवि नीरज के काव्य व्यक्तित्व को दो पक्षों में विभाजित किया जा सकता है। पहला पक्ष मंचीय और फिल्मी साहित्य का है और दूसरा नितान्त साहित्यिक; जो मेरी दृष्टि में महादेवी और बच्चन की गीत परम्परा का विस्तार है। नीरज जी का पहला पक्ष अपार ख्याति से आच्छादित है, जो बादलों की तरह उनके श्रेष्ठ काव्य के तारामण्डल को भी ढँके हुए है। ऐसा नहीं है कि उनके इस पक्ष पर काव्य पारखियों की दृष्टि गयी ही न हो; डॉ. रामविलास शर्मा, डॉ. प्रकाशचन्द्र गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर जैसे प्रतिष्ठित साहित्यकारों ने आरम्भ में ही उनकी प्रतिभा को न केवल स्वीकारा बल्कि उनमें एक बड़े कवि की सम्भावनाओं के भी दर्शन किये थे। डॉ. रणजीत ने तो उन्हें प्रगतिशील कवियों की श्रेणी में रखकर उनके महत्त्व को विशेष रूप से रेखांकित किया है। बाद के आलोचकों ने आधुनिक गीति-काव्य को ही सिरे से नकारना शुरू कर दिया और इस आपाधापी में कवि नीरज की गीति-काव्य से इतर श्रेष्ठ मुक्तछन्द रचनाएँ भी मूल्यांकन से वंचित रह गयीं। यद्यपि अनेक विश्वविद्यालयों द्वारा उनके काव्य का मूल्यांकन शोध प्रबन्धों के रूप में कराया जा चुका है, फिर भी आजकल जिस तरह से शोधकार्य किये और कराये जाते हैं, उनकी कितनी प्रामणिकता है, यह हम सभी जानते हैं। उनके काव्य के उचित और निष्पक्ष मूल्यांकन की आज विशेष आवश्यकता है। कवि नीरज के उल्लेख के बिना यदि हिन्दी गीति-काव्य का कोई इतिहास लिखा जाता है, तो मुझे उसकी प्रामाणिकता पर संदेह होने लगता है।
‘गीत जो गाये नहीं’ कवि नीरज के उन गीतों का संकलन है, जो उनके द्वारा काव्य मंचों पर प्राय: प्रस्तुत नहीं किये गये हैं। ये वही गीत हैं जहाँ से गीत की एक धारा नवगीत के रूप में निकलती है। बेशक नवगीतकारों का एक समूह इसे स्वीकार करने में संकोच करे फिर भी इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता कि नवगीत का उत्स नीरज के उन गीतों में स्पष्ट दिखाई देता है जो साठ के दशक में पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से सामने आ रहे थे। अस्तु, ऐसे लगभग सभी गीतों को संकलित करने का प्रयास किया गया है। यह प्रयास कितना सफल है इसका निर्णय तो प्रबुद्ध पाठक ही करेंगे फिर भी कवि नीरज के उन आलोचकों को यह संकलन एक पुनर्विचार करने पर अवश्य विवश करेगा, जो बिना पढ़े ही उन्हें एक श्रृंगारी और निराश मृत्युवादी कवि घोषित करने में अपनी ऊर्जा नष्ट करते रहे। ये गीत आपके समक्ष प्रमाण हैं कि वे आशावादिता और जीवन की उत्सवधर्मिता के प्रतिनिधि कवि हैं।
कवि नीरज के काव्य व्यक्तित्व को दो पक्षों में विभाजित किया जा सकता है। पहला पक्ष मंचीय और फिल्मी साहित्य का है और दूसरा नितान्त साहित्यिक; जो मेरी दृष्टि में महादेवी और बच्चन की गीत परम्परा का विस्तार है। नीरज जी का पहला पक्ष अपार ख्याति से आच्छादित है, जो बादलों की तरह उनके श्रेष्ठ काव्य के तारामण्डल को भी ढँके हुए है। ऐसा नहीं है कि उनके इस पक्ष पर काव्य पारखियों की दृष्टि गयी ही न हो; डॉ. रामविलास शर्मा, डॉ. प्रकाशचन्द्र गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर जैसे प्रतिष्ठित साहित्यकारों ने आरम्भ में ही उनकी प्रतिभा को न केवल स्वीकारा बल्कि उनमें एक बड़े कवि की सम्भावनाओं के भी दर्शन किये थे। डॉ. रणजीत ने तो उन्हें प्रगतिशील कवियों की श्रेणी में रखकर उनके महत्त्व को विशेष रूप से रेखांकित किया है। बाद के आलोचकों ने आधुनिक गीति-काव्य को ही सिरे से नकारना शुरू कर दिया और इस आपाधापी में कवि नीरज की गीति-काव्य से इतर श्रेष्ठ मुक्तछन्द रचनाएँ भी मूल्यांकन से वंचित रह गयीं। यद्यपि अनेक विश्वविद्यालयों द्वारा उनके काव्य का मूल्यांकन शोध प्रबन्धों के रूप में कराया जा चुका है, फिर भी आजकल जिस तरह से शोधकार्य किये और कराये जाते हैं, उनकी कितनी प्रामणिकता है, यह हम सभी जानते हैं। उनके काव्य के उचित और निष्पक्ष मूल्यांकन की आज विशेष आवश्यकता है। कवि नीरज के उल्लेख के बिना यदि हिन्दी गीति-काव्य का कोई इतिहास लिखा जाता है, तो मुझे उसकी प्रामाणिकता पर संदेह होने लगता है।
‘गीत जो गाये नहीं’ कवि नीरज के उन गीतों का संकलन है, जो उनके द्वारा काव्य मंचों पर प्राय: प्रस्तुत नहीं किये गये हैं। ये वही गीत हैं जहाँ से गीत की एक धारा नवगीत के रूप में निकलती है। बेशक नवगीतकारों का एक समूह इसे स्वीकार करने में संकोच करे फिर भी इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता कि नवगीत का उत्स नीरज के उन गीतों में स्पष्ट दिखाई देता है जो साठ के दशक में पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से सामने आ रहे थे। अस्तु, ऐसे लगभग सभी गीतों को संकलित करने का प्रयास किया गया है। यह प्रयास कितना सफल है इसका निर्णय तो प्रबुद्ध पाठक ही करेंगे फिर भी कवि नीरज के उन आलोचकों को यह संकलन एक पुनर्विचार करने पर अवश्य विवश करेगा, जो बिना पढ़े ही उन्हें एक श्रृंगारी और निराश मृत्युवादी कवि घोषित करने में अपनी ऊर्जा नष्ट करते रहे। ये गीत आपके समक्ष प्रमाण हैं कि वे आशावादिता और जीवन की उत्सवधर्मिता के प्रतिनिधि कवि हैं।
सुरेश कुमार
मानव कवि बन जाता है
तब मानव कवि बन जाता है !
जब उसको संसार रुलाता,
वह अपनों के समीप जाता,
पर जब वे भी ठुकरा देते
वह निज मन के सम्मुख आता,
पर उसकी दुर्बलता पर जब मन भी उसका मुस्काता है !
तब मानव कवि बन जाता है !
जब उसको संसार रुलाता,
वह अपनों के समीप जाता,
पर जब वे भी ठुकरा देते
वह निज मन के सम्मुख आता,
पर उसकी दुर्बलता पर जब मन भी उसका मुस्काता है !
तब मानव कवि बन जाता है !
जीवन जहाँ...
जीवन जहाँ खत्म हो जाता !
उठते-गिरते,
जीवन-पथ पर
चलते-चलते,
पथिक पहुँच कर,
इस जीवन के चौराहे पर,
क्षणभर रुक कर,
सूनी दृष्टि डाल सम्मुख जब पीछे अपने नयन घुमाता !
जीवन वहाँ ख़त्म हो जाता !
उठते-गिरते,
जीवन-पथ पर
चलते-चलते,
पथिक पहुँच कर,
इस जीवन के चौराहे पर,
क्षणभर रुक कर,
सूनी दृष्टि डाल सम्मुख जब पीछे अपने नयन घुमाता !
जीवन वहाँ ख़त्म हो जाता !
अब तुम्हारा प्यार भी...
अब तुम्हारा प्यार भी मुझको नहीं स्वीकार प्रेयसि !
चाहता था जब हृदय बनना तुम्हारा ही पुजारी,
छीनकर सर्वस्व मेरा तब कहा तुमने भिखारी,
आँसुओं से रात दिन मैंने चरण धोये तुम्हारे,
पर न भीगी एक क्षण भी चिर निठुर चितवन तुम्हारी,
जब तरस कर आज पूजा-भावना ही मर चुकी है,
तुम चलीं मुझको दिखाने भावमय संसार प्रेयसि !
अब तुम्हारा प्यार भी मुझको नहीं स्वीकार प्रेयसि !
भावना ही जब नहीं तो व्यर्थ पूजन और अर्चन,
व्यर्थ है फिर देवता भी, व्यर्थ फिर मन का समर्पण,
सत्य तो यह है कि जग में पूज्य केवल भावना ही,
देवता तो भावना की तृप्ति का बस एक साधन,
तृप्ति का वरदान दोनों के परे जो-वह समय है,
जब समय ही वह न तो फिर व्यर्थ सब आधार प्रेयसि !
अब तुम्हारा प्यार भी मुझको नहीं स्वीकार प्रेयसि !
अब मचलते हैं न नयनों में कभी रंगीन सपने,
हैं गये भर से थे जो हृदय में घाव तुमने,
कल्पना में अब परी बनकर उतर पाती नहीं तुम,
पास जो थे हैं स्वयं तुमने मिटाये चिह्न अपने,
दग्ध मन में जब तुम्हारी याद ही बाक़ी न कोई,
फिर कहाँ से मैं करूँ आरम्भ यह व्यापार प्रेयसि !
अब तुम्हारा प्यार भी मुझको नहीं स्वीकार प्रेयसि !
अश्रु-सी है आज तिरती याद उस दिन की नजर में,
थी पड़ी जब नाव अपनी काल तूफ़ानी भँवर में,
कूल पर तब हो खड़ीं तुम व्यंग मुझ पर कर रही थीं,
पा सका था पार मैं खुद डूबकर सागर-लहर में,
हर लहर ही आज जब लगने लगी है पार मुझको,
तुम चलीं देने मुझे तब एक जड़ पतवार प्रेयसि !
अब तुम्हारा प्यार भी मुझको नहीं स्वीकार प्रेयसि !
चाहता था जब हृदय बनना तुम्हारा ही पुजारी,
छीनकर सर्वस्व मेरा तब कहा तुमने भिखारी,
आँसुओं से रात दिन मैंने चरण धोये तुम्हारे,
पर न भीगी एक क्षण भी चिर निठुर चितवन तुम्हारी,
जब तरस कर आज पूजा-भावना ही मर चुकी है,
तुम चलीं मुझको दिखाने भावमय संसार प्रेयसि !
अब तुम्हारा प्यार भी मुझको नहीं स्वीकार प्रेयसि !
भावना ही जब नहीं तो व्यर्थ पूजन और अर्चन,
व्यर्थ है फिर देवता भी, व्यर्थ फिर मन का समर्पण,
सत्य तो यह है कि जग में पूज्य केवल भावना ही,
देवता तो भावना की तृप्ति का बस एक साधन,
तृप्ति का वरदान दोनों के परे जो-वह समय है,
जब समय ही वह न तो फिर व्यर्थ सब आधार प्रेयसि !
अब तुम्हारा प्यार भी मुझको नहीं स्वीकार प्रेयसि !
अब मचलते हैं न नयनों में कभी रंगीन सपने,
हैं गये भर से थे जो हृदय में घाव तुमने,
कल्पना में अब परी बनकर उतर पाती नहीं तुम,
पास जो थे हैं स्वयं तुमने मिटाये चिह्न अपने,
दग्ध मन में जब तुम्हारी याद ही बाक़ी न कोई,
फिर कहाँ से मैं करूँ आरम्भ यह व्यापार प्रेयसि !
अब तुम्हारा प्यार भी मुझको नहीं स्वीकार प्रेयसि !
अश्रु-सी है आज तिरती याद उस दिन की नजर में,
थी पड़ी जब नाव अपनी काल तूफ़ानी भँवर में,
कूल पर तब हो खड़ीं तुम व्यंग मुझ पर कर रही थीं,
पा सका था पार मैं खुद डूबकर सागर-लहर में,
हर लहर ही आज जब लगने लगी है पार मुझको,
तुम चलीं देने मुझे तब एक जड़ पतवार प्रेयसि !
अब तुम्हारा प्यार भी मुझको नहीं स्वीकार प्रेयसि !
नींद भी मेरे नयन की...
प्राण ! पहले तो हृदय तुमने चुराया
छीन ली अब नींद भी मेरे नयन की
बीत जाती रात हो जाता सबेरा,
पर नयन-पंक्षी नहीं लेते बसेरा,
बन्द पंखों में किये आकाश-धरती
खोजते फिरते अँधेरे का उजेरा,
पंख थकते, प्राण थकते, रात थकती
खोजने की चाह पर थकती न मन की।
छीन ली अब नींद भी मेरे नयन की।
स्वप्न सोते स्वर्ग तक अंचल पसारे,
डाल कर गल-बाँह भू, नभ के किनारे
किस तरह सोऊँ मगर मैं पास आकर
बैठ जाते हैं उतर नभ से सितारे,
और हैं मुझको सुनाते वह कहानी,
है लगा देती झड़ी जो अश्रु-घन की।
सिर्फ क्षण भर तुम बने मेहमान घर में,
पर सदा को बस गये बन याद उर में,
रूप का जादू किया वह डाल मुझ पर
आज मैं अनजान अपने ही नगर में,
किन्तु फिर भी मन तुम्हें ही प्यार करता
क्या करूँ आदत पड़ी है बालपन की।
छीन ली अब नींद भी मेरे नयन की।
पर न अब मुझको रुलाओ और ज़्यादा,
पर न अब मुझको मिटाओ और ज़्यादा,
हूँ बहुत मैं सह चुका उपहास जग का
अब न मुझ पर मुस्कराओ और ज़्यादा,
धैर्य का भी तो कहीं पर अन्त है प्रिय !
और सीमा भी कहीं पर है सहन की।
छीन ली अब नींद भी मेरे नयन की
बीत जाती रात हो जाता सबेरा,
पर नयन-पंक्षी नहीं लेते बसेरा,
बन्द पंखों में किये आकाश-धरती
खोजते फिरते अँधेरे का उजेरा,
पंख थकते, प्राण थकते, रात थकती
खोजने की चाह पर थकती न मन की।
छीन ली अब नींद भी मेरे नयन की।
स्वप्न सोते स्वर्ग तक अंचल पसारे,
डाल कर गल-बाँह भू, नभ के किनारे
किस तरह सोऊँ मगर मैं पास आकर
बैठ जाते हैं उतर नभ से सितारे,
और हैं मुझको सुनाते वह कहानी,
है लगा देती झड़ी जो अश्रु-घन की।
सिर्फ क्षण भर तुम बने मेहमान घर में,
पर सदा को बस गये बन याद उर में,
रूप का जादू किया वह डाल मुझ पर
आज मैं अनजान अपने ही नगर में,
किन्तु फिर भी मन तुम्हें ही प्यार करता
क्या करूँ आदत पड़ी है बालपन की।
छीन ली अब नींद भी मेरे नयन की।
पर न अब मुझको रुलाओ और ज़्यादा,
पर न अब मुझको मिटाओ और ज़्यादा,
हूँ बहुत मैं सह चुका उपहास जग का
अब न मुझ पर मुस्कराओ और ज़्यादा,
धैर्य का भी तो कहीं पर अन्त है प्रिय !
और सीमा भी कहीं पर है सहन की।
छीन ली नींद भी मेरे नयन की...
कितनी अतृप्ति है...
कितनी अतृप्ति है जीवन में ?
मधु के अगणित प्याले पीकर,
कहता जग तृप्त हुआ जीवन,
मुखरित हो पड़ता है सहसा,
मादकता से कण-कण प्रतिक्षण,
पर फिर विष पीने की इच्छा क्यों जागृत होती है मन में ?
कवि का विह्वल अंतर कहता, पागल, अतृप्ति है जीवन में।
कितनी अतृप्ति है जीवन में ?
मधु के अगणित प्याले पीकर,
कहता जग तृप्त हुआ जीवन,
मुखरित हो पड़ता है सहसा,
मादकता से कण-कण प्रतिक्षण,
पर फिर विष पीने की इच्छा क्यों जागृत होती है मन में ?
कवि का विह्वल अंतर कहता, पागल, अतृप्ति है जीवन में।
तुमने कितनी निर्दयता की...
तुमने कितनी निर्दयता की !
सम्मुख फैला कर मधु-सागर,
मानस में भर कर प्यास अमर,
मेरी इस कोमल गर्दन पर रख पत्थर का गुरु भार दिया।
तुमने कितनी निर्दयता की !
अरमान सभी उर के कुचले,
निर्मम कर से छाले मसले,
फिर भी आँसू के घूँघट से हँसने का ही अधिकार दिया।
तुमने कितनी निर्दयता की !
जग का कटु से कटुतम बन्धन,
बाँधा मेरा तन-मन यौवन,
फिर भी इस छोटे से मन में निस्सीम प्यार उपहार दिया।
तुमने कितनी निर्दयता की !
सम्मुख फैला कर मधु-सागर,
मानस में भर कर प्यास अमर,
मेरी इस कोमल गर्दन पर रख पत्थर का गुरु भार दिया।
तुमने कितनी निर्दयता की !
अरमान सभी उर के कुचले,
निर्मम कर से छाले मसले,
फिर भी आँसू के घूँघट से हँसने का ही अधिकार दिया।
तुमने कितनी निर्दयता की !
जग का कटु से कटुतम बन्धन,
बाँधा मेरा तन-मन यौवन,
फिर भी इस छोटे से मन में निस्सीम प्यार उपहार दिया।
तुमने कितनी निर्दयता की !
कितने दिन चलेगा...
रूप की इस काँपती लौ के तले
यह हमारा प्यार कितने दिन चलेगा ?
नील-सर में नींद की नीली लहर,
खोजती है भोर का तट रात भर,
किन्तु आता प्रात जब गाती ऊषा,
बूँद बन कर हर लहर जाती बिखर,
प्राप्ति ही जब मृत्यु है अस्तित्व की,
यह हृदय-व्यापार कितने दिन चलेगा ?
रूप की इस काँपती लौ के तले
यह हमारा प्यार कितने दिन चलेगा ?
‘ताज’ यमुना से सदा कहता अभय-
‘काल पर मैं प्रेम-यौवन की विजय’
बोलती यमुना-‘अरे तू क्षुद्र क्या-
एक मेरी बूँद में डूबा प्रणय’
जी रही जब एक जल-कण पर तृषा,
तृप्ति का आधार कितने दिन चलेगा ?
रूप की इस काँपती लौ के तले
यह हमारा प्यार कितने दिन चलेगा ?
स्वर्ग को भू की चुनौती सा अमर,
है खड़ा जो वह हिमालय का शिखर,
एक दिन हो भूविलुंठित गल-पिघल,
जल उठेगा बन मरुस्थल अग्नि-सर,
थिर न जब सत्ता पहाड़ों की यहाँ,
अश्रु का श्रृंगार कितने दिन चलेगा ?
रूप की इस काँपती लौ के तले
यह हमारा प्यार कितने दिन चलेगा ?
गूँजते थे फूल के स्वर कल जहाँ,
तैरते थे रूप के बादल जहाँ,
अब गरजती रात सुरसा-सी खड़ी,
घन-प्रभंजन की अनल-हलचल वहाँ,
काल की जिस बाढ़ में डूबी प्रकृति,
श्वास का पतवार कितने दिन चलेगा ?
रूप की इस काँपती लौ के तले
यह हमारा प्यार कितने दिन चलेगा ?
विश्व भर में जो सुबह लाती किरण,
साँझ देती है वही तम को शरण,
ज्योति सत्य, असत्य तम फिर भी सदा,
है किया करता दिवस निशि को वरण,
सत्य भी जब थिर नहीं निज रूप में,
स्वप्न का संसार कितने दिन चलेगा ?
रूप की इस काँपती लौ के तले
यह हमारा प्यार कितने दिन चलेगा ?
यह हमारा प्यार कितने दिन चलेगा ?
नील-सर में नींद की नीली लहर,
खोजती है भोर का तट रात भर,
किन्तु आता प्रात जब गाती ऊषा,
बूँद बन कर हर लहर जाती बिखर,
प्राप्ति ही जब मृत्यु है अस्तित्व की,
यह हृदय-व्यापार कितने दिन चलेगा ?
रूप की इस काँपती लौ के तले
यह हमारा प्यार कितने दिन चलेगा ?
‘ताज’ यमुना से सदा कहता अभय-
‘काल पर मैं प्रेम-यौवन की विजय’
बोलती यमुना-‘अरे तू क्षुद्र क्या-
एक मेरी बूँद में डूबा प्रणय’
जी रही जब एक जल-कण पर तृषा,
तृप्ति का आधार कितने दिन चलेगा ?
रूप की इस काँपती लौ के तले
यह हमारा प्यार कितने दिन चलेगा ?
स्वर्ग को भू की चुनौती सा अमर,
है खड़ा जो वह हिमालय का शिखर,
एक दिन हो भूविलुंठित गल-पिघल,
जल उठेगा बन मरुस्थल अग्नि-सर,
थिर न जब सत्ता पहाड़ों की यहाँ,
अश्रु का श्रृंगार कितने दिन चलेगा ?
रूप की इस काँपती लौ के तले
यह हमारा प्यार कितने दिन चलेगा ?
गूँजते थे फूल के स्वर कल जहाँ,
तैरते थे रूप के बादल जहाँ,
अब गरजती रात सुरसा-सी खड़ी,
घन-प्रभंजन की अनल-हलचल वहाँ,
काल की जिस बाढ़ में डूबी प्रकृति,
श्वास का पतवार कितने दिन चलेगा ?
रूप की इस काँपती लौ के तले
यह हमारा प्यार कितने दिन चलेगा ?
विश्व भर में जो सुबह लाती किरण,
साँझ देती है वही तम को शरण,
ज्योति सत्य, असत्य तम फिर भी सदा,
है किया करता दिवस निशि को वरण,
सत्य भी जब थिर नहीं निज रूप में,
स्वप्न का संसार कितने दिन चलेगा ?
रूप की इस काँपती लौ के तले
यह हमारा प्यार कितने दिन चलेगा ?
दिया जलता रहा...
जी उठे शायद शलभ इस आस में
रात भर रो रो, दिया जलता रहा।
थक गया जब प्रार्थना का पुण्य, बल,
सो गयी जब साधना होकर विफल,
जब धरा ने भी नहीं धीरज दिया,
व्यंग जब आकाश ने हँसकर किया,
आग तब पानी बनाने के लिए-
रात भर रो रो, दिया जलता रहा।
जी उठे शायद शलभ इस आस में
रात भर रो रो, दिया जलता रहा।
बिजलियों का चीर पहने थी दिशा,
आँधियों के पर लगाये थी निशा,
पर्वतों की बाँह पकड़े था पवन,
सिन्धु को सिर पर उठाये था गगन,
सब रुके, पर प्रीति की अर्थी लिये,
आँसुओं का कारवाँ चलता रहा।
जी उठे शायद शलभ इस आस में
रात भर रो रो, दिया जलता रहा।
काँपता तम, थरथराती लौ रही,
आग अपनी भी न जाती थी सही,
लग रहा था कल्प-सा हर एक पल
बन गयी थीं सिसकियाँ साँसे विकल,
पर न जाने क्यों उमर की डोर में
प्राण बँध तिल तिल सदा गलता रहा ?
जी उठे शायद शलभ इस आस में
रात भर रो रो, दिया जलता रहा।
सो मरण की नींद निशि फिर फिर जगी,
शूल के शव पर कली फिर फिर उगी,
फूल मधुपों से बिछुड़कर भी खिला,
पंथ पंथी से भटककर भी चला
पर बिछुड़ कर एक क्षण को जन्म से
आयु का यौवन सदा ढलता रहा।
जी उठे शायद शलभ इस आस में
रात भर रो रो, दिया जलता रहा।
धूल का आधार हर उपवन लिये,
मृत्यु से श्रृंगार हर जीवन किये,
जो अमर है वह न धरती पर रहा,
मर्त्य का ही भार मिट्टी ने सहा,
प्रेम को अमरत्व देने को मगर,
आदमी खुद को सदा छलता रहा।
जी उठे शायद शलभ इस आस में
रात भर रो रो, दिया जलता रहा।
रात भर रो रो, दिया जलता रहा।
थक गया जब प्रार्थना का पुण्य, बल,
सो गयी जब साधना होकर विफल,
जब धरा ने भी नहीं धीरज दिया,
व्यंग जब आकाश ने हँसकर किया,
आग तब पानी बनाने के लिए-
रात भर रो रो, दिया जलता रहा।
जी उठे शायद शलभ इस आस में
रात भर रो रो, दिया जलता रहा।
बिजलियों का चीर पहने थी दिशा,
आँधियों के पर लगाये थी निशा,
पर्वतों की बाँह पकड़े था पवन,
सिन्धु को सिर पर उठाये था गगन,
सब रुके, पर प्रीति की अर्थी लिये,
आँसुओं का कारवाँ चलता रहा।
जी उठे शायद शलभ इस आस में
रात भर रो रो, दिया जलता रहा।
काँपता तम, थरथराती लौ रही,
आग अपनी भी न जाती थी सही,
लग रहा था कल्प-सा हर एक पल
बन गयी थीं सिसकियाँ साँसे विकल,
पर न जाने क्यों उमर की डोर में
प्राण बँध तिल तिल सदा गलता रहा ?
जी उठे शायद शलभ इस आस में
रात भर रो रो, दिया जलता रहा।
सो मरण की नींद निशि फिर फिर जगी,
शूल के शव पर कली फिर फिर उगी,
फूल मधुपों से बिछुड़कर भी खिला,
पंथ पंथी से भटककर भी चला
पर बिछुड़ कर एक क्षण को जन्म से
आयु का यौवन सदा ढलता रहा।
जी उठे शायद शलभ इस आस में
रात भर रो रो, दिया जलता रहा।
धूल का आधार हर उपवन लिये,
मृत्यु से श्रृंगार हर जीवन किये,
जो अमर है वह न धरती पर रहा,
मर्त्य का ही भार मिट्टी ने सहा,
प्रेम को अमरत्व देने को मगर,
आदमी खुद को सदा छलता रहा।
जी उठे शायद शलभ इस आस में
रात भर रो रो, दिया जलता रहा।
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